आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
एक
कल्याण कैम्प की महायोगिनी
यदि वह घटना न घटती तो किसी भी आम आदमी की तरह मैंने भी अपने जीवन को जी डाला होता।
किन्तु मैं जीवन और मृत्यु के रहस्यों की तह तक पहुँचने के लिए परेशान था। यह मेरी तीव्र जिजीविषा ही थी, जिसके कारण मैं महायोगिनी अम्बिकादेवी के परिचय में आया। तब 1965 चल रहा था। जीवन की एकरसता को तोड़ने के लिए मुझे किसी जलजले की जरूरत थी।
उन दिनों मैं बम्बई से कुछेक किलोमीटर के फासले पर स्थित नगर शहद में एक ठेकेदार की तरफ से, सुपरवाइजर बनाकर भेजा गया था। शहद में मुझे एक केमिकल फैक्ट्री के निर्माण-कार्य पर नजर रखनी थी। मई का महीना था। गर्मी प्तही नहीं जाती थी। लोहे के बड़े-बडे स्तम्भों पर वेल्डिंग चल रही थी। वेल्डिंग के ताप और कर्कश शोर ने गर्मी को और भी असह्य बना दिया था।
मैं एक जबर्दस्त लौह-स्तम्भ की परछाईं में जा बैठा था। धूप में स्तम्भ इतना गर्म हो चुका था कि छूना मुश्किल था। रूमाल निकालकर मैंने पसीना पोंछा। पास ही, लकडी के खोखों में काँक्रीट भर रही लक्ष्मी की ओर मैं देखने लगा। लक्ष्मी कोई आकर्षक युवती नहीं थी। कमजोर शरीर। काला रंग। अजीब- चेहरा... लेकिन नियमित मजदूरी ने उसके शरीर में, कमजोरी के बावजूद कसावट ला दी थी। उसकी उम्र तीस से पैंतीस के बीच रही होगी।
उसे देखते ही मेरे दिमाग में विचारों के चक्र घूमने लगे। जिन्दगी और मौत की लाचारी और पेट की, मुहब्बत और आबरू की बातें करना कितना आसान है। यह लक्ष्मी....
दो दिन पहले ही उसका पति जान से मारा गया था। भीषण दुर्घटना में फटे हुए सिर वाली लाश के सामने बैठकर वह सीना पीट-पीटकर रोई थी। मैंने नजर उठाई। लक्ष्मी का पति किस ऊँचाई से गिरकर मरा था, यह मैंने एक बार और देख लिया। आज जो जगह खाली थी, वहीं उसका पति दो दिन पहले खडा था। खलासी रस्से खींच रहे थे। ''होयशा! होयशा!'' के नारे लगाते हुए वे एक जबर्दस्त स्तम्भ को खड़ा कर रहे थे। लक्ष्मी का पति उस स्तम्भ के शिखर पर बैठकर रस्से सरका रहा था। बीच-बीच में वह भद्दे मजाक करता और हँसता। उसका हँसता हुआ चेहरा मुझे आज भी याद है। अचानक न जाने क्या हुआ और वह धम्म से नीचे आ गिरा। गिरते ही उसका सिर, बहते रक्त की लालिमा के नीचे छिप गया....
उस दृश्य को याद कर आज भी रोम सिहर जाते हैं।
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